वहां दाखिल होते ही मन को झनझना देनी वाली आवाज़ों का एक जमघट सा लग गया। दूर से आती हुई ट्रैफिक की गड़गड़ाहट सायं-सायं करती हुई कानों में जैसे घुसने लगी। आज न ही कोई त्यौहार था और न ही कोई खास दिन। फिर भी यहां आते ही लगा जैसे मैं किसी मेले में हूं जहां कई आवाज़ें एक-दूसरे को जी-जान से दबाने की कोशिश में लगी दिर्खाइ देती हैं। जैसे हर
बड़ा जनरेटर अपनी भयंकर भट-भट से छोटे जनरेटर की ठक-ठक, ठक-ठक को आसपास ही रहने की बन्दिशों में बांध देता है और दूर-दराज से आती दस रुपये में तिलिस्मी जादू दिखाने की ललकार सब पर भारी सी पड़ती है। वैसे ही यहां भट-भट, भटटटटटटटटट।।। करता सायलेंसर, टक-ठक टुक पीइं घड-घड,,,चर-चुर्र-चीईई… पर भारी सा लग रहा था।
सड़क की चलती हुई रोज़मर्रा, यहां की खट-टक-ठाक्क्क ठक, ठक, ठक… के आगे दब सी रही थी। आसपास से कानों को दोनों तरफ से इंजन चलने की हूउ उ उ हूओ ओ ओ ओ ओ, हूउ उ उ उ ….हूओ ओ ओ ओ ओ जैसे घेरे हुए सी थी। जैसे ही कानों को कुछ और सुनने के लिए दिशाहीन करता वो बहक जाते और दोबारा सुनने की लालसा मन में आती कि आखिर जवाब क्या दिया।
दोबारा अपनी आवाज़ को उन आवाज़ों के बीच फेंकता तो जवाब सुनने के लिए कुछ पल ठहर कर सुनता।
पास ही में बैठा एक लड़का गुटके की पीप से पिच-पिच करता और कभी बाइक का तार खींचता तो कभी फ्रंट लाइट हिला-हिला कर देखता। उसी दरमियां उस्ताद जी अपनी कारीगरी का नमूना दिखाने मैदान में उतरे। खट-टक-ठाक्क्क ठक, ठक, ठक, हूउउउ, हूउउउओ, हूउउउ … हूऊओओ अभी भी माहौल में वैसे ही बनी हुई थी। बस फर्क आया तो उनके कदमों की थाप का। लोहे की चद्दर पर से जब वो चलते हुए आये तो दुकान में जैसे उनका चलना गूंजने लगा। उनकी नज़रें अपने आसपास हो रहे कामों को देखतीं और ठहर जातीं लेकिन कान दूर तक जाते और अलग-अलग कामों की सूची बनाते पूओऊ. पाऊ पो पू पू पीईईई। शायद हॉर्न ठीक हो रहा होगा।
भटभम̂भट्भट्भट्भट्… भट-भट-भट, शायद कहीं किसी का फटा हुआ साइलेंसर ठीक हो रहा होगा। ऐसी तमाम आवाजें अपने-अपने कामों के इशारे देतीं और कुछ पल ठहर कर गायब हो जातीं। ढेरों आवाज़ों के इस भंडार का पलभर भी वजन कम नहीं होता था। ऐसा लगता ही नहीं कि किसी खट-पट के रुक जाने से बाकी ठाक-ठक-फट-फुट-धम-हूऊऊऊ… कम होगी।
उन्होंने हैंडल हाथ में लेते ही ढक-ढकक… किक मारी। पहली बार में इंजन हूउऊ-हूउऊ करके रह गया। उस्ताद जी ने दोबारा जोर लगाया। ढाक-ढकक किक मारी। इस बार इंजन बोल पड़ा। चकरी घूमी लेकिन मसला हल नहीं हुआ। उनकी इन हरकतों से किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। यहां जैसे हर किसी को कोई न कोई धुन सवार थी और जो खाली था वो या तो अधेड़ उम्र का था या फिर मसखरा जिनका बोलना ही लोगों को अच्छा लगता है, काम अच्छा लगे या न लगे।
उस्ताद जी अपनी धुन में खुद को बद-ख्याल कर चुके थे। उन्हें अब कुछ और सुनने की तड़प ही नहीं थी (उनकी आंखों की पुतली बार-बार चक्कर खाती और हाथ हर उस पार्ट को छूता जिसको छूने से उनके दिमाग़ में कोई गोला छूटता।) नज़रें जो ढूढ़ रही थीं शायद वो कहीं खो सा गया था।
”क्या हुआ उस्ताद जी कहां गुम हो गये-समझ में आया कुछ की पंगा कहां है?“ ”समझ में तो आ रहा है लेकिन पकड़ में नहीं आ रहा।“
”तो निकालो कोई पैंतरा।“ ”तुम गाड़ी का एक्सेलेटर ज़रा पकड़ो और जब मैं कहूं तो रेस देना।“
”ठीक है।“
अपने अनुभवी कानों को झंझोड़ते हुए वो चैकड़ी मारके बैठे। उनका अपना ही एक अंदाज़ था। एक हाथ से लेग-गार्ड को थामते हुए। दूसरे हाथ को ज़मीन पर रखा। कानों को आवाज़ की लहर के साथ जोड़ते हुए उन्होंने अपने अंदाज़े लगाने की शुरुआत की।
”रेस दो,“
हूऊऊऊ… हहहहह हुऊ, हऊ, हूऊ…
”थोड़ा तेज करो।“
हुहूऊऊ, टक, हूउऊऊऊओ, टक… हुहूऊऊऊऊ, टक, हूऊऊऊओ, टक
”उस्ताद जी ये टक-टक ही तो मुझे समझ नहीं आ रही कि आ कहां से रही है?“
”हां-हां यही तो मैं भी देख रहा हूं…“
”इसके इंजन में कोई खराबी नहीं है। इंजन बिलकुल ठीक है। ये आवाज़ चेन में से आ रही है।“
”चेन सही होगी। टाईट हो जायेगी जो खर्चा आएगा दे देना।“
सैफुद्दीन