शहर अगर कुछ देर के लिए रुक भी जाये तब भी वह शांत नहीं होता। बीच-बीच में धकेलने की सुई सी उठती और फिर एक चीख के साथ बंद हो जाती। हर आवाज़ एक से बढ़कर एक ड़िमांड करती जितना चिल्ला सकती चिल्लाती, दूर तलक गूँजती और फिर रूक जाती। रास्ता दो नहीं तो चीख पड़ेंगे। सब कुछ उसी में खोकर कहीं रह जाता। इस धमकी को यहाँ मानता कौन है। आवाज़ें यहाँ पर धमकियाँ ही तो देती हैं। Continue reading “रेलवे रोड ब्रिज / नांगलामाची बस स्टैंड”
डेली पैसेंजर – सराय काले खाँ
शहर लोगों की आवाज़ों को खा जाता है। चलती–रुकती बसें जहाँ लोगों को अपनी ओर खींचती हैं वहीं उन्हें अपने में समा भी लेती हैं। यहाँ आवाज़ों में उनकी गति का अहसास अपने आप ही होने लगता है। आवाज़ों की दौड़ और एक दूसरे से जुगलबंदी करता नजर आता है। आँखें सड़क पर खालीपन की खामोशी को महसूस करती है तो दूसरी तरफ़ कान आवाज़ों की चहलकदमी को थाम लेते हैं।
शहर के अंदर और बाहर लोगों के आने–जाने के रास्ते भले ही दूर–दूर हों लेकिन यहाँ पर रुकना और फिर दौड़ जाना इस जगह के घनेपन को हमेशा मजबूत रखता है। यह चीख–पुकारों का इलाका है। ऐसी चीख–पुकार जो लोगों को भागने ही नहीं देती। अपने में डूबा लेती है। Continue reading “डेली पैसेंजर – सराय काले खाँ”
थके कान
कहते हैं रात दिनभर की सारी आवाज़ों को अपनी खामोशी में छुपा लेती है। पर क्या सच में रात खामोश होती है? तकरीबन रात के पोने एक का वक्त है। मैं अभी अभी अपने काम पर से लौट कर कमरे में दाख़िल हुआ हूँ। पूरा कमरा गर्म भाप से भरा हुआ है। दरवाजा खोलते ही लगा जैसे दिनभर की खामोशी अब टूट जायेगी। एक पल ऐसा लगा की बंद दरवाजें के पीछे कई आवाज़ें पहले से ही छुपी हुई हैं। सब कुछ बोल रहा है। दिवारें, दिवार पर लटकी घड़ियां, घड़ियों में लंगड़ाकर चलती सूइयां, तस्वीरें, उनमें छुपी यादें, कमरें की कुर्सियां, उनकी गद्दियां, पलंग और उसपर रखे तकिये। सभी कुछ मुझसे बातें करने की कोशिश में है। कुछ भी शांत नहीं है। दरवाजें आपस में अड़ंगी देकर एक दूसरे को अपने से अलग कर रहे हैं और कमरे के भीतर खेलती हवा सबको छेड़ रही है। सुस्त हवा की अपनी कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती मगर वो जिसको भी छू लेती वही बोल पड़ने की फिराक में है। कमरे में झिगूरों की आवाज़ें हैं। लगता है जैसे वो मेरे आने से पूरी तरह से नराज़ है। मुझे डरा रहें हैं।
चिडि़या बाज़ार
00.3 पिंजरे पर लकड़ी मारने की आवाज़- झिन झिन झिन नननन…
00.7 टीवी का गाना गुनगुनाना… बूउम… बूउम बूउउउम
00.07 से 00.18 – चिड़ियों का बोलना जो कि मिक्स होकर चहचहाने जैसा ही सुनाई दे रहा है… चीं-चीं-चीं-चिरररर-चिरररर-टी
उस्ताद
वहां दाखिल होते ही मन को झनझना देनी वाली आवाज़ों का एक जमघट सा लग गया। दूर से आती हुई ट्रैफिक की गड़गड़ाहट सायं-सायं करती हुई कानों में जैसे घुसने लगी। आज न ही कोई त्यौहार था और न ही कोई खास दिन। फिर भी यहां आते ही लगा जैसे मैं किसी मेले में हूं जहां कई आवाज़ें एक-दूसरे को जी-जान से दबाने की कोशिश में लगी दिर्खाइ देती हैं। जैसे हर
बड़ा जनरेटर अपनी भयंकर भट-भट से छोटे जनरेटर की ठक-ठक, ठक-ठक को आसपास ही रहने की बन्दिशों में बांध देता है और दूर-दराज से आती दस रुपये में तिलिस्मी जादू दिखाने की ललकार सब पर भारी सी पड़ती है। वैसे ही यहां भट-भट, भटटटटटटटटट।।। करता सायलेंसर, टक-ठक टुक पीइं घड-घड,,,चर-चुर्र-चीईई… पर भारी सा लग रहा था।
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प्रफोमेंस / Performance
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