00.3 पिंजरे पर लकड़ी मारने की आवाज़- झिन झिन झिन नननन…
00.7 टीवी का गाना गुनगुनाना… बूउम… बूउम बूउउउम
00.07 से 00.18 – चिड़ियों का बोलना जो कि मिक्स होकर चहचहाने जैसा ही सुनाई दे रहा है… चीं-चीं-चीं-चिरररर-चिरररर-टी
00.00 से 00.40 – चिड़ियों के बोलने के साथ लोगों के आपसी संवाद भी सुनाई दे रहे हैं। जैसे कि दुकानदार का ग्राहक से बात करना। चिड़ियों का लगातार अपनी आवाज़ के साथ अपनी मौजूदगी में रहना बना हुआ है। गाडि़यों का हॉर्न और एक आवाज़ है जो कि समझ से बाहर है जिसे सुन कर समझ पाना मुश्किल है कि वो आवाज़ क्या है शायद टी.वी. या रेडियो की आवाज़ है। इसमें साउंड की चार परतें बनी हुई है। पहली-,चिड़िया दूसरी-आदमी, तीसरी-गाड़ियाँ , चैथी-टीवी या रेडियो की।
00.40 से 1.00 चारों परतें लगातार बनी हुई हैं । किसी का किसी को बुलाना — ‘आआओओ-आआओे’, गाडि़यों के पास से गुजरना सब आवाज़ों को दबा रहा है। फिर भी चिड़ियों का वजूद खत्म नहीं हो रहा है। हां, कुछ वक्त के लिए हल्का जरूर पड़ जाता है। चिड़ियाँ अपनी ‘टिररर-चिरर-चीं-चीं-चीं’ को रोकने का नाम ही नहीं ले रही है। ऐसा लग रहा है जैसे कि वो हमेशा ऑन मोड में ही रहती हैं। कभी ना चुप होने वाली आवाज़ लगातार सुनाई दे रही है।
01.00 से 01.40 — खरीदारी और दुकानदारी करती हुई बातचीत किसी बाजार में खड़े होने का एहसास करा रही है जिसमें ढेरों आवाजें एक-दूसरे के साथ चल रही हैं ना कि एक-दूसरे के फोर्स को दबाने की कोशिश कर रही हैं। जैसे कि आवाज़ के पीछे की आवाज़ ‘गुड़क-गुड़क-गुड़क-गुड़क-गुड़क
01.40 से 02.20 — लोगों के बीच का संवाद और चिड़ियों के बीच का संवाद दोनों ही बहस में हैं, पसंद नापसंद को लेकर बातचीत एक कार के हॉर्न के साथ शुरू हुई। आवाजों का टकराव,चिड़ियाँ किस धुन में है इसका अनुमान लगाना संभव नहीं है लेकिन लोगों के संवाद से यही मालूम होता है कि चिडि़यों को बेचने के लिए ही ये आवाजें निकाली जा रही हैं। ‘लेलो भइया हाँ… लो…’ सुनो तो ‘हाआआ ये लो…’ जो आवाज़ें ठहरी हुई सी हैं वो चिड़ियों की हैं। बाकी सब गति में हैं। सब आवाज़ें भागती दौड़ती हुई सी लग रही हैं।
02.20 से 03.20 –मिक्स साउंड - बस, कार, बाइक, रिक्शा, लोगों के चलने की, चिड़िया की आवाज़ें सब एक साथ सुनाई दे रहा है। इन सबकी आवाज़ को सुन कर आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि कौन सी आवाज किस चीज़ की है क्योंकि सबका अपना एक ग्राफ होता है और उस ग्राफ के साथ हमारा सुनने का एक अंदाज़ा होता है। तेजी से शुरू होती ‘झूंउउउउउउउउउउउउउउ’ हल्के होते-होते खत्म हो जाती। तब हम ये सोचते है कि ये तो बस की ही आवाज़ है…। लोगों के चलने की आवाज़ बराबरी के साउंड में साफ सुनाई दे रही है क्योंकि जब किसी हल्के साउंड पर भारी या ठोस साउंड दबाव डालने लगता है तो हल्के साउंड के वजूद पर असर पड़ता है जो कि सिर्फ़ हथेली मसलने के साउंड जैसा ही सुनाई देता है।
इस साउंड में निरन्तर चलती आवाज़ों का एक गुच्छा है जिसमें पास और दूर की आवाज़ को छांट पाना आसान नहीं है। लेकिन ये जरूर पता चल रहा है कि ये किसी चिड़ियाँ के पिंजरे के पास की आवाज़ें हैं जिसमें चिड़ियों की चेहचाहहट का ‘ऑफ’ हो जाना नामुमकिन है। वो तो एक बहती हुई लहर की तरह ‘चीं-चीं-चीं-चीं-चीं – टीवीककक – टीवीककक, टुक-टुक-टिरर्र-टिर्रर’ करती ही रहती हैं। शायद रोड का साउंड ही उन्हें उथल-पुथल करते रहने को उकसाती रहती होगी या फिर वो लोग उनकी आवाज़ों से अपने आकर्षण को मजबूत बनाते रहते होंगे उनकी ‘चीं-चीं-चीं-चीं-चीं-टीवीककक-
सैफुद्दीन