डेली पैसेंजर – सराय काले खाँ

listeners at work at busy bus stopशहर लोगों की आवाज़ों को खा जाता है। चलती–रुकती बसें जहाँ लोगों को अपनी ओर खींचती हैं वहीं उन्हें अपने में समा भी लेती हैं। यहाँ आवाज़ों में उनकी गति का अहसास अपने आप ही होने लगता है। आवाज़ों की दौड़ और एक दूसरे से जुगलबंदी करता नजर आता है। आँखें सड़क पर खालीपन की खामोशी को महसूस करती है तो दूसरी तरफ़ कान आवाज़ों की चहलकदमी को थाम लेते हैं।

शहर के अंदर और बाहर लोगों के आने–जाने के रास्ते भले ही दूर–दूर हों लेकिन यहाँ पर रुकना और फिर दौड़ जाना इस जगह के घनेपन को हमेशा मजबूत रखता है। यह चीख–पुकारों का इलाका है। ऐसी चीख–पुकार जो लोगों को भागने ही नहीं देती। अपने में डूबा लेती है।अभी–अभी दो बड़ी बसें आकर खड़ी हुई हैं। कुछ लोग अब भी बस स्टैंड पर बैठे यहाँ से वहाँ अपनी नज़रों को घूमा रहे हैं और ज़ोर–ज़ोर से चिल्ला रहे हैं, ‘अरे मैं यहाँ कब से खड़ा हूँ, यहीं पर आ जा। यहाँ से सीधा जाना है।’ वह अब भी अपनी आँखों से पूरे रास्ते को निहार रहा है। यहाँ से वहाँ घूमती नज़रें शायद किसी का इंतजार कर रही हैं। किसी ऐसी खास आवाज़ का जो उन्हें अभी पुकारेगी और ये वहाँ पर दौड़ जाएँगे।

“हाँ, वहीं को जाना है।”
“तू आ तो जा यार।”
“भईया, कश्मीरी गेट जाएंगे क्या?”
“हाँ भाई, गाजियाबाद, गाजियाबाद”

और धड़ल्ले से ठप-ठप करती पैरों की आवाज़ें अपना आपा खो एक शोर-सा मचा देती। एक बार फिर से ‘घुं…. घुं….. घुं…… घुं….. घुं’ की सहन होती आवाज़ एक पल में छु-मन्तर हो जाती।

खड़.. खड़..खटाक…खड़…खड़….खटाक कोई बेहद भारी सामान के किसी मजबूत बक्से को जमीन पर घसीटता हुआ बड़ी आसानी से ले गया।

‘धम….धम’ जब भी कोई बड़ी गाड़ी सामने बने पुल के ऊपर से गुजरती तो लगता जैसे पूरा रोड ही उछल रहा है। ‘धम….धम’ भरी गाड़ियों के उछलने पर होता धमाका पूरे रास्ते धड़कन बन जाता और एक ऐसी गूंज-सी छोड़ जाता जिसका असर काफी देर तक रहता। एक एक मिनट के अंतराल में ये धड़कन गूँजती रहती।

“यार आज तो बहुत लेट हो गया।”
“मार पड़ेगी।”
“टीं… टीं…पींईईईई……जल्दी से चल बे, गाड़ी आगे ले। निकाल।”
साँय-साँय-साँय-साँय, टांय-टांय-टांय-टांय (एक ट्यूनिंग और बाकी सब का दम अपने ही अंदर जैसे दब के रह जा रहा है। सरकारी आवाज़ अपना कब्जा सड़क पर जमा ले रही है।)

धड़ाम– एक ज़ोर का डंडा बस के पीछे मारते हुए वह आदमी चीखते हुए बोला– बड़ा ले इसे, वरना सब तोड़ दूंगा।

घर्र- घर्र- घर्र- के साथ ही सड़क से कई बड़े शोर का अंत हुआ।

“अभी तक अपनी बस नहीं आई क्या” किसी ने अपने साथ में खड़े एक बड़े से पूछा।
“अरे इसका तो रोज़ का हो गया है” वो बड़ा माथे से पसीना पोंछते हुए बोला।
“अब आएगी और फिर लेगी तीन घंटे“ साथ में खड़े बंदे ने कहा।
“अब धूप ज्यादा हो गई है तो बस वाला रुकेगा भी नहीं” साथ में खड़े एक और आदमी ने कहा।
“अरे भाई हम तो यहाँ पर रोज़ की सवारी हैं। हमें तो सब मालूम है।”
“तो फिर ये बताओ, ये 949 बनती कहाँ से है।” दोनों लड़कों ने एक साथ पूछा।
“अंदर से” वो बस हाथों का ईशारा करते हुए बोला।

वे दोनों लड़के गए नहीं। बस, कोई छाँव वाली जगह तलाश कर बस स्टैंड के पीछे की ओर चले गए। दो मिनट की बातचीत जैसे यहाँ पर कई परेशानियों का हल भी बता देती और नई परेशानी खड़ी भी कर देती। इतना चल कर, इतनी देर से खड़े इंतजार करते, फिर मालूम होता है कि अब कहीं और से बस पकडनी है तो सब कुछ मटियामेट हो जाता। जी में आता कि अब नहीं जाना कहीं।

घूँ…… घूँ…… घूँ…… घूँ…… बेहद ज़ोरों का शोर और उसके पीछे पीं….. पीं….. पीं….. करती ढेरों गाडियाँ जैसे एक दूसरे के ऊपर चढ़ कर निकल जाने को आमादा हो रही हैं।

कोई एक गाड़ी बंद पड़ गई। पीछे से बाकी गाडियाँ जैसे रास्ता मान रही हो। हर आवाज़ एक दूसरे को पीछे छोड़ देने की ज़िद्द पर हो। छोटी गाड़ियाँ इस तरह से छुप जातीं जैसे उनका इस सड़क पर कोई काम नहीं। वह बीच में कहीं गायब थी। सारी चीख–पुकार में उस ख़ास आवाज़ को खोजना है, जहाँ से लोग दिखाई देंगे।

यहाँ पर हर किसी का सफ़र काफी लंबा महसूस होता।

घड़क – घड़क – घड़क – ……. घड़क घड़क घड़क….
घीं-घीं….घिंघिंघिन…. घूँ….घूँ
खड़….खड़….खड़….खड़….
घाँ…घाँ…घाँ…घाँ….
घूँ….खड़.. घूँ….खड़…. – धड़ धड़ धड़ धड़ धड़ धड़
खूँ….खूँ…..खूँ…
पीं….पीं…..पीं….

दस रुपए में ले जाओ – दस रुपए में ले जाओ, गुब्बारे दो।
“अबे तेरे को बोला था न भाग जा यहाँ से।”
टीरिंग- टीरिंग-
लगता है अपनी वाली नहीं आएगी आज। चल न थोड़ा आगे की ओर चलते हैं।

कहीं किसी कोने से आती गानों की धीमी आवाज़ कान को चुपके सहला जाती। पर कोई न कोई फिर से अपने लिए इन कानों को चुरा लेती।

इतने में एक बस आकर रुकी। एक बड़ी फौज उसकी और भागी। सभी को जैसे उसी बस का इंतज़ार था। बच्चे, बड़े, औरतें और लड़के–लड़कियाँ सभी उसी ओर दौड़ गयीं। कोई सामान खींचता हुआ दौड़ा, तो कोई सिर पर लादे, बच्चे छोटे थैलों को पकड़े भाग रहे हैं, औरतें छोटे बच्चों को गोद में उठाए, आदमी सामान को पटक रहे हैं। किसी के चेहरे पर खुशी है तो किसी के चेहरे पर घबराहट। हर किसी को उस बस में चढ़ने की जल्दी है। कुछ आदमी बस के पीछे से बस पर चढ़ गए। कुछ अब भी दरवाजे पर धक्का-मुक्की में अटके हैं।

“भाई जल्दी से रख – सीट पर रख, सीट पर”
“आगे बढ़ा”
“चल – चढ़ना”
“भईया रुकना – पीछे लेडीस है।“
“बुढ़ा आदमी है भाई।“

गाड़ी वाला बार–बार हॉर्न बजा कर चढ़ते लोगों की घबराहट को और बढ़ा रहा है। बीच–बीच में पों….पों कर गाड़ी को आगे की ओर हल्का-सा बढ़ा देता। फिर एकदम से ज़ोरदार ब्रेक- खीं…खीं करके बस अपना पूरा वज़न आगे के टायर पर छोड़ देती।

एक आदमी अंदर से बोला – “भईया पूरा घर उठा लाये हो क्या?”
वो गुस्से में बोला – “भाई तुम अपना काम करो ना।“
“इतना सामान, भाई इसका भी किराया लगेगा।“
“ले लेंगे सर, इसमें क्या है।“
“चलो भाई, हमें भी तो रास्ता दो यार” – एक आदमी पीछे खड़ा हुआ बोला।
“बस भाई हो गया।”
“चल बेटा।”
फिर – खट….खट…..खटाक….धड़….धड़ाक” की संतुष्ट कर देने वाली आवाज़ हुई और माहौल में फिर से अगले की तैयारी होने लगी।

कुछ ही समय में फिर से एक पल की शांति फैल गई। यहाँ इस सड़क पर दो–चार तेज़ी से निकलती गाड़ियों की आवाजाही और आवाज़ तो मानो ऐसी लगती जैसे यहाँ बेहद शांत माहौल है। मगर फिर से चार से पाँच बसें आकर खड़ी हो जातीं और उन सवारियों को पुकारती जो कहीं या तो छुपी हुई हैं या फिर आँखों को घुमाकर किसी को खोज रही हैं।

लेकिन, इतना तो तय है यहाँ पर की हर खोज को मंज़िल मिल ही जाती है।