शहर अगर कुछ देर के लिए रुक भी जाये तब भी वह शांत नहीं होता। बीच-बीच में धकेलने की सुई सी उठती और फिर एक चीख के साथ बंद हो जाती। हर आवाज़ एक से बढ़कर एक ड़िमांड करती जितना चिल्ला सकती चिल्लाती, दूर तलक गूँजती और फिर रूक जाती। रास्ता दो नहीं तो चीख पड़ेंगे। सब कुछ उसी में खोकर कहीं रह जाता। इस धमकी को यहाँ मानता कौन है। आवाज़ें यहाँ पर धमकियाँ ही तो देती हैं। Continue reading
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डेली पैसेंजर – सराय काले खाँ
शहर लोगों की आवाज़ों को खा जाता है। चलती–रुकती बसें जहाँ लोगों को अपनी ओर खींचती हैं वहीं उन्हें अपने में समा भी लेती हैं। यहाँ आवाज़ों में उनकी गति का अहसास अपने आप ही होने लगता है। आवाज़ों की दौड़ और एक दूसरे से जुगलबंदी करता नजर आता है। आँखें सड़क पर खालीपन की खामोशी को महसूस करती है तो दूसरी तरफ़ कान आवाज़ों की चहलकदमी को थाम लेते हैं।
शहर के अंदर और बाहर लोगों के आने–जाने के रास्ते भले ही दूर–दूर हों लेकिन यहाँ पर रुकना और फिर दौड़ जाना इस जगह के घनेपन को हमेशा मजबूत रखता है। यह चीख–पुकारों का इलाका है। ऐसी चीख–पुकार जो लोगों को भागने ही नहीं देती। अपने में डूबा लेती है। Continue reading
सुननेवाला काम पर है।
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