सड़क, कॉलोनी, बारातघर और चर्च के बीच फंसा ये पार्क अपनी किलकारियों को अपनी ही चोहद्दी के अंदर छुपा ले रहा है। बाहर से आती सारी ध्वनियां इस पार्क का मंथन कर रही हैं। पैरों की रगड़ और उछलती बॉल की भड़क एक पल को भी शांत नहीं रहने दे रही है। यहां ध्वनियां जमीनी हैं। नीचे से उपर की ओर जा रही है मगर ज्यादा उपर नहीं। जैसे अपनी चोहद्दी से बाहर नहीं जाना चाहती हो। बाउंडरी दो ओर से नियमित खुली है। चर्च और बारातघर के पीछे की दीवार और सड़क के बगल का दरवाज़ा जैसे इसे अपने में रहने देता है मगर खोने नहीं। एक ही वक़्त में यहां पर स्पीकर और माइक दोनों का अभिनय चल रहा होता है।
मेन गेट के कॉर्नर पर एक सीढ़ी है जहां से लगातार किसी ना किसी आहट का अहसास रहता है। आहट जैसे जमीन की जुबान है। आहट जैसे दीवारों की चोट हैं और आहट जैसे मिट्टी की रगड़ है।
कान एक बहुत बड़ी मशीन की भांति महसूस हो रहे हैं। वो मशीन जो छत बनाने का मसाला बनाती है। घूमती जाती है। उसके अन्दर हर पत्थर, रोड़ी, पानी, सीमेंट और बरूदा सब कुछ पिस जाता है। मिल जाता है। जब तक वो मशीन घूमती है तब तक एक सैलाब सा गूंजता है। कभी वो सैलाब भीगे छनभग सा हो जाता है और बह निकलता है तो कभी कठोर रोड़ी सा कड़कड़ाता है। बेचैन कर जाता है। पर नियमित चलता है, गूंजता है। चीखता है और हकला भी हो जाता है। पर बात पूरी कहता है।
‘टीइइइइइइइइ… टीटी…कृटीटीटीटी…’,कृकृ – तेज गाड़ी के अंदर से चीखता एक शख्स।
‘धम धम धम, ठिकठिकठीक… तेरा हुआ जो शिकार…ठिक ठिक ठिक … तेरा प्याररररर. टीइइइइइइइइ…’ वहीं पास ही से किसी के फोन में बजते गाने ने बेचैन आवाजों को भूलने में मदद की।
‘अबे चल आगे’ फिर से बॉल वही गूंज ‘पोओओओओ… खड़खड़डडडड…’सड़क के बीचों बीच कोई खड्डा है।
‘फटाक…’ किसी ने किसी बल्ले से पर जोरदार प्रहार किया। ‘अबे बच बे…,’बॉल से बचके रहने की चीख।
‘हूँउउउउउउ…ढकाक…,’कोई काफी तेज मोटर साइकल खड्डे से उछलते हुये निकल गई।
‘तेरा प्यार प्यार प्यार हुक्काबार…’, अपना टावर पकड़ता फोन फिर से गूंजा।
कान बनी मशीन के अंदर जैसे कोई पत्थर अटक गया है। फिर उस पर कोई दूसरा बड़ा पत्थर गिरा और उसे अपने साथ खींचकर ले गया। पत्थर पर पत्थर एक दूसरे से टकरा रहे हैं। सड़क के बीच में उस खड्डे से टकरा कर सारी आवाजें पत्थर बनकर जमीन पर गिर रही हैं। हर पत्थर का अपना एक आकार और वजन है। कोई डरा देने वाला है मगर दूर है तो कोई मशीन में लगातार घूम रहा है मगर टूट नहीं रहा। वो टूटेगा भी नहीं। मशीन कुछ देर के लिये अपनी रिद्दम को बदलने की भी कोशिश कर रही है। उसमें घूमते पत्थर उसे झिंझोड़ रहे हैं।
अब की बार कोई बेहद बड़ा पत्थर जोरदार पड़ा, मशीन अटक गई। घूड़…घूड़…‘घूड़… घूड़घूड़… घूड़ड़ड़ड़ड़ड़ड़…’ ‘धड़ाम…’ एक बेहद मोटी गाड़ी शायद गुजरी है। लगता है कि काफी पुरानी है। आंखें कुछ देर के लिये बंद हो गईं। बाउंडरी छोटी पड़ गई है। दीवार को फांदकर कई सारी ध्वनियों का झुंड जमीन पर आकर गिरा।
‘किर.. किर.. किर.. किरकिर…।’ पत्थर बनी ये सड़किया आवाजें मशीन को कितना भी कमजोर बनाती जायें लेकिन वही उनके साथ उनको भी घूम जाने की ताकत दे रही हैं। मशीन कान के भंवर की तरह नीचे की ओर जाये चला जा रहा है। जैसे कोई जबरदस्त मंथन चल गुजरने की पूरी उम्मीद हो। सड़क की तरफ बनी पाँच फुटा बाउंडरी की दीवार के पीछे से ‘ओये वहां देखो क्या हुआ’ कहते हुए कोई काफी तेज चीखा। ‘भड़ाम,’ किसी बहुत बड़े डंम जैसी चीज के गिरने की आवाज। जैसे वो किसी बेहद ऊँची बिल्डिंग से गिरा है। लगता था शायद उसे फेंका गया है।
‘पींपींपीं, पोंओओओओओओओ..’ काफी सारी गाडियाँ एक साथ रुकीं।
‘अबे कोई उठाओ इसे’ किसी का बहुत जोर से किसी को बुलाना। जैसे वो असमर्थ हो अकेला कुछ करने में।
‘टींटीटी… इइइइ…’ उसके बगल में से कोई खुद को निकाल ले गया।
कानों की मशीन का तो जैसे मंथन चल रहा है। घुमाव के चक्रव्यूह से एक गूंज ने सब कुछ अपनी ओर खींच लिया। पार्क जो अब तक अपनी किलकारियों से रंगा हुआ था वो सूना हो गया। कुछ देर को आँखें बंद हो गयी। आँख के बंद होते ही जैसे कल्पना में जगह का आकार ही बदल गया। कान अब एक लम्बा पतला धागा बन चुके हैं जो बीच में से कभी और पतला हो जाता है तो कभी ‘कट-फट-कटाक’ कर रहा है। जैसे किसी बच्चे ने अपने फटे गुब्बारे को गिलास पर कसकर बांध लिया हो और उसमे झाडू की तिल्लियों से वार कर रहा हो।
थोड़ी ही देर के बाद रूप फिर से बदला – कान वापस मशीन के अंदर होते मंथन जैसे बन गए। ऐसा लगता है मानो मशीन उन ठोस पत्थरों को निगलना भी नहीं चाहती और न ही बाहर निकाल फेंकना चाहती है।
किसी को जमीन से उठाने की चीखें और गाड़ियों की आवाजाही की तेज और गूंजती आवाज़ आपस में लड़ रही है। कानों की नर्म और गुम जमीन को ही उखाड़ रही है। कठोर, तरल ध्वनियां उसे खोद दे रही हैं। जमीन पलीली हो गई है। जमीन ने अपने अंदर उन्हें भर लिया है। किसी को पी लिया है तो किसी को अंदर आने का कोई मौका ही नहीं दिया है।
‘भुप..भुप..भुप….भुप..भुप..भुपभुपभुपभुपभुपभु..’. एक बुलट। किसी फौज़ी की। किसी कर्नल की। जैसे वो इस जगह का मुआइना करने के लिए निकला है। उसे कोई जल्दी नहीं है कहीं जाने की।
किसी तेज गांजे की महक की तरह कुछ देर और दूर तक कान ने नाक की भूमिका निभाई। उस ध्वनि के साथ खिंचे चले गये। कुछ और महक जैसे इस नाक को भा ही नहीं रही। अब हर महक उसी की तरह लग रही है।
‘फटाक..’ आंख की तरह कान काम करने लगे। ‘फटाक…फटाक… फटाक’ लगातार तेज प्रहार।
तेज तलवार…. पैनी और तीखी…।
कान जो भी सुनाना चाहते या सुने हुए का जैसे ही अनुवाद करते शरीर उसे तुरंत समझ लेता और रियेक्ट करता।
‘बीप. ………बीप …………………बीप ……..बीप……बीप……………. … बीप …….. .. बीप ……….. ……… बीप …. .
किसी की घड़ी जो अलार्म का काम कर रही है। द्रौपदी की साड़ी की तरह लपेटा ही जा रहा है। शरीर घूम रहा है। पूरी साड़ी उस पर लपेटी ही जा रही है। कोई घूम रहा है। उसका हर चक्कर सीढि़यों के हर पौढ़ी की तरह सपाट है। पांव रगड़ का चक्कर उसे बदल दे रहा है।
शरीर घूम रहा है। हर चक्कर में बदल रहा है। ‘पोंओओओओओओ….. कोई बहुत जल्दी में गुजरा।
‘भुम.भुम.भुम.भुम..’ किसी गाड़ी में बजते गाने की धुन कुछ दूर तक शरीर उसके पीछे ही चला गया।
लख्मी चंद कोहली