फणीश्वरनाथ रेणु का साहित्यः आवाज़ों से / की भरी -पूरी दुनिया
हिन्दी में फणीश्वरनाथ रेणु के संबंध में लिखी कही जाने वाली बातें प्रायः आंचलिकता की बहस के इर्दगिर्द होती हैं। यह बहस अगर बेमानी नहीं तो भी रेणु को समझने के लिए कम से कम नाकाफ़ी तो है ही। सकारात्मक या नकारात्मक अर्थों में आंचलिकता से परे भी उनके यहां बहुत कुछ है जिसका अभी पूरी तरह नोटिस नहीं लिया गया है। आवाज़ों की अपनी विचित्रताओं या अद्वतीयाताओं को पकड़ने की जो हिकमत उनके साहित्य में मिलती है उसकी पर्याप्त सराहना अभी तक इन पंक्तियों के लेखक की निगाह से नहीं गुजरी है। अफसोस कि कुछ लोगों, मसलन रामविलास शर्मा ने उनकी ऐसी हिकमत पर ग़ौर फरमाते हुए उसे ऊबाऊ और व्यर्थ ही पाया है। यह दुःखद और आश्चर्यजनक इसलिए है कि अपने आसपास की दुनिया को बारीकी से जानने पर प्रगतिशील आलोचना का विशेष बल रहा है और अपने बैठकखाने में चाय के प्याले में क्रांति करने की उन लोगों ने हमेशा आलोचना की है। इसके बावजूद आचंलिक स्पंदन और एकदम खांटी, असली अनुभूतियों और आवाजों के आर्काइवर रेणु उनको क्यों नहीं भाते।
आखिरकार, प्रगतिशील आलोचना से कहां चूक हुई है कि अपने आसपास की तमाम ध्वनियों को बहुत ग़ौर से सुनने और दर्ज़ करने वाला लेखक दरअसल ड्राइंगरूमी लेखन से अपने बाहर होने का एक सबूत देता रहा। तमाम तरह की आवाज़ों की अद्वितीयता को रेखांकित करता हुआ वह ज़िंदगी के साथ अपने जिस जुड़ाव का परिचय देता है वह तरक्कीपसंद मिज़ाज को भला नागवार कैसे गुजर सकती है?
रेणु का साहित्य ऐसी आवाज़ों का एक भरापूरा खज़ाना है। यह हिन्दी का ऐसा सबसे समृद्ध उदाहरण है जो आवाज़ों की दुनिया को पकड़ने के मामले में दुनिया भर की कद्दावर भाषाओं के साहित्य से कहीं भी कमतर नहीं ठहरता। इस मामले में रेणु का साहित्य हिन्दी वालों के लिए प्रदशर्नीय नमूना है।
कुछ बानगी
रात्रि अपनी भीषणताओं के साथ चलती रहती और उसकी सारी भीषणता को, ताल ठोककर, ललकारती रहती थी — सिर्फ पहलवान की ढोलक। संध्या से लेकर प्रातः तक एक ही गति से बजती रहती–‘चट्-धा, गिड़-धा, चट्-धा, गिड-धा’। अर्थात-‘आजा भिड़जा !!’ बीच-बीच में ‘चटाक्-चट्-धा-चटाक्-चट्-धा’ यानी–उठाकर पटक दे !!…यही आवाज़ संजीवनी शक्ति भरती रहती थी।
पहलवान की ढोलक
विराटनगर-‘मिलो का नगर’-कई मीलों तक फैला हुआ। विशाल मशीनों के विभिन्न पुर्जों की अलग-अलग आवाज़ें-धड़-धड़, फट-फट, घर्र-घर्र, सू-सू, चर्र-चू-फस… वगैरह, सामूहिक आवाज-हः-हः, हाय-हाय !
सरहद के उस पार- रेणू रचनावली-भाग-2
ज्ञान ने आज पहली बार लाल टोपी पहनी है। हर जत्थे में ढोलक है। 261 मील !
‘ड्रम ड्रम ड्रम, ड्रम ड्रम ड्रम’
लेफ्ट राइट, लेफ्ट राइट…
सफेद बालूचरों में चरनेवाली हंसा-चकेवा की जोड़ी रात्रि की निस्तब्धता को भंग कर किलक उठती है कभी-कभी। हिमालय से उतरी परी बोलती है-केंक्-केंक्-कें-एँ-एँ-गाँ-आँ-केंक्!
कोसका मैया की सास बड़ी झगड़ाही। जिला-जवार, टोला-परोपट्टा में मषहूर। और दोनों ननदों की क्या पूछिए ! गुणमन्ती और जोगमन्ती । तीनों मिलकर जब गालियाँ देने लगतीं तो लगता कि भाड़ में मकई के दाने भूने जा रहे है: फड़र्र-र्र-र्र।
अब देखिए कि कुल्हड़िया आँधी और पहड़िया पानी ने मिलकर कैसा परलय मचाया है: ह-ह-ह-र-र-र-र…! गुड़गुडुम्-आँ-आँ-सि-ई-ई-ई-आँ-गर-गर-गुडुम !
इसके बाद तो सारी धरती इन्द्रधनुषी हो जायेगी। तब तक रंगीन फोटोग्राफी का विकास भी हो जायेगा। … झक-झका-झक-झका… ! मालगाड़ी जा रही है। रोज तीन मालगाड़ियाँ !
पर्दा खुलने के पहले ही–पर्दे के अन्दर से–टेपरेकार्डर चलाने की आवाज आती है। ऐसा लगता है, कोई ‘टेप’ को ‘एडजस्ट’ कर रहा है। आगे और पीछे की ओर चला कर–बार-बार कुछ खोज रहा है। एकाध अधूरी पंक्ति, कई कटे-अधकटे षब्द। तेज ‘स्पीड’ में बजायी गयी आवाज–कुंकुंकुंहई कुंई-कुंई… कट्ट-कुट्ट, खट्ट-खुट्ट–के बाद मानो इच्छित अंश मिल गया हो और टेपरेकार्डर से, एक फटी हुई चिड़चिड़ी आवज के बाद मंत्र अथवा स्तोत्र पाठ की ध्वनि निकलती है–लयबद्ध !
पाँच नम्बर प्लेटफार्म
जरीब की कड़ी, तख्ती, राइटेंगल, गुनियाँ, कम्पास आदि लेकर अमीर लोग अपने टण्डैलों के साथ धरती के चप्पे-चप्पे पर घूम रहे हैं। जरीब की कड़ी खनखनाती हुई सरक रही है- खन, खन, खन!
भट भट भट भट भट ट् ट ! ड्राइवर टैक्टर ले आया।
भट भट भट भट भट ट ट् ट ! भट भट भट भट ! चले जित्तन बाबू, परती की जोताई करने।
झर-झर-झहर-झहर-झर-र-र ! गड़-गड़-गुडुम !
भट-ट-ट-ट भड़भड़-भड़भड़ भर्र-र- र!
कड़-कड़-कर्र-र-र-घड़-घड़-कर्राक् ! बिजली कड़की
भट-भट-भट-भट ! जित्तन बाबू ने टैक्टर स्टार्ट किया।
जित्तन बाबू ने इंजन को बन्द कर दिया। भट-भट-भर्र-र्र-र!
जित्तन बाबू ने ट्रैक्टर स्टार्ट किया भड़र्र-र्र-भट-भट… ।
घर्र घर्र घर्र घर्र र र ! ड बॉ क् ! सरकारी कुएँ की जंजीर घरघराती हुई कूप के अन्दर गयी।
लुत्तो ने जयमंगल ताँती को बैठने का इषारा किया और माइक में फूंक मारी-‘फू ॐ ॐ ॐ
फुस टक टक टक लाउडस्पीकर के भोंपे में लुत्तो की फूँक और उँगली की खटखटाहट की आवाज़…
टप्पा-टप्पा-टः टः टः टप्पा-टा-ट्रिं ! …क्रेंक !
टप्पा-टप्पा-टः-टः-ट्रिं !
– सेवा में, सम्पादक पाटलीपुत्र टाइम्स! गत पाँच महीने की लम्बी चुप्पी के बाद अवसरवादी को पत्राचार का अवसर प्राप्त हुआ है। क्या कहिए, अवसर की बात ! … आप अवसरवादी द्वारा परिचालित स्तम्भ की घोषणा कर सकते है। मैं फिर से अवसर की बात को चालू करना चाहता हूँ। टः-टः-टः !
टप्पा टप्पा टः टः !
– सेवा में, सम्पादक राजकाज … इत्यादि ! तटस्थ राजनीति-वार्ता के लाउडस्पीकर साहब फिर हाजिर हैं, हुजूर के आगे ! टः टः !
ट्रिं !
– सम्पादिका, सचित्र सुन्दरी नारी! टापका पत्र, भटकने के बाद ही सही, मिल गया है। मैं गाँव आ गयी हूँ। अपने नैहर में हूँ। पत्रोत्तर में विलम्ब के लिए क्षमा …। प्रसन्न हूँ। आप ‘सोलह सिंगार-विषेषांक’ निकाल रही है। सचित्र (अपनी तस्वीर नहीं!) रचना शीघ्र भेज रही हूँ, विशेषांक के लिए। मेरे छोटे भाई भवेश को फोटोग्राफी से दिलचस्पी है। उसके कुछ छायाचित्र है। नवनीता आपकी। टप्पा-टप्पा-ट्रिं ! क्रेंक
बाँ-आँ-आँ-आँ !
ठाकुरबाड़ी के सामनेवाले मैदान में खड़ी जनता ने, पण्डित सरबजीत चौबे के आदेशनुसार मिलकर गो-ध्वनि की- बाँ-आँ-आँ-आँ !
ट्रिप-टि-रि-रि-रि-रि ! सुरपति ने टेप-रिकार्डर का बटन ऑन किया। टि-रि-रि-रि-रि !
सुरपति ने टेप-रिकार्डर का बटन ऑफ किया ! पिट् क्रींक्क!
टिडिंग-टिडिंग ! गरुड़धुंज साइकिल की घंटी बजाता हुआ आगे बढ़ रहा था। साथ में रोशनबिस्वाँ भी है – टिडिंग-टिडिंग !
आज रह-रहकर गुब्बारे फटते है, फट्टाक !
‘‘हाँ हुजूर !’’
‘‘दावा गलत साबित हुआ।’’
‘‘या खुदा।’’
एक गुब्बारा फिर फटा फट्टाक !
‘‘हुजू-उ-उ-र, मैं तो अपनी मोरंनगी भैंस की पीठ पर नींद में फोंफ्-फोंफ् ! उधर खेत साफ !’’
वह मुझे स्थानीय बोली में आदमी और जानवरों को पुकारना सिखलाती: भैंसवार को, रे मेथिया- या-या ! चरवाहे को, ‘रे घोल्टा-आ-आ !’ दरबान को, ‘हिरवा-वा-वा!’ काली गाय को पुकारती-‘हि-बो-ओ-ओ-हि’, और गाय दौड़ी आती। अरनी भैंस को बुलाने के लिए-‘उ-ड़-हा-हा-हा-हा !’
कोठी के मुंडेर पर बैठी एक पण्डुकी अनवरत पुकार रही है-तुतु-तू-तू-तू !
इरावती के मामा मिस्टर खानचन्द गार्चा कैम्प के बड़े साहब है। तीन बजे रात को ही उठकर जीप स्टार्ट कर रहे हैं। … भर्र-र-र-र-र !
‘‘हवेली में? सो कैसे?’’ गरुड़धुज ने थू-थू कर खैनी थूक दी।
गरुड़धुज ने कनखी देते हुए कहा-‘‘सब मछली निकलेगी !’’ … न जाने क्यों, तीनों एक ही साथ ठठाकर हँस पड़े-हा -हा-हा-हा !
रोशन बिस्वाँ साइकिल की घण्टी बजाता हुआ आया। आजकल, उसने अपनी साइकिल में मेढ़क की तरह बोलनेवाला हारन भी लगाया है’’ पें ऐं ऐं ग पें ऐं ग ग !
कभी-कभी। … तू ऊ ऊ ऊ !.. शंखध्वनि? हवेली में आज कोई व्रत कथा है!
परती पर टिटही बोल रही- टिं टिंहि टिं टिं टिंहि टिं … अशुभ है यह बोली !
‘‘अरे हाँ, कल नूनू के बाप ने देखा, घड़ी पहर रात को बरदिया घाट पर दोनों गुदुर-गुदुर, फुसुर-फुसुर बतिया रहे थे। कम्फू की बीबी और जित्तन बाबू ! नूनू के बाप को डर हो गया।’’
‘‘हहहहह ! हहहहह ! वाह जी हरिजन दीवाना ! लाओ पीठ ठोक दूँ…।’’
‘‘ऐ! मारते हो क्यों? देखो जयमंगल, यह मार रहा है और कहता है कि पीठ ठोकता हूँ ! लुत्तो बाबू को खबर दो जरा।’’
‘‘क्यों मारा?’’
‘‘पीठ ठोकता हूँ या मारता हूँ ! इस तरह पीठ ठोकने से चोट लगती है? जरा तुम्हीं देखो !
…फट्-फट् !’’
परती परिकथा