सुनने वाले को तैयार करना सुनाने वाले की ज़िम्मेदारी है .

Mr. Natwarlal ( 1979 )

हर जगह जिसको सुनाना है वो सुनने वाले को तैयार करता है। सुनाने वाला सुनने वाले का ध्यान अपनी ओर खींचता है। सुनने वाले के कान खुले हुए है। पूरे वातावरण में जितनी भी ध्वनियां है, जितनी भी आवाज़ें आ रही है वो सुनने वाले के कानों में जा रहा है पर ये जो सुनाने वाला है वो कह रहा है कि सिर्फ़ मेरी ध्वनियां सुनो। वो कहता है सुनने वाले से कि सुनते हुए तुम चुनाव करो कि तुम्हें क्या सुनना है। दरअसल सुनाने वाला चाहता है कि सुनने वाला वही सुने जो मैं कह रहा हूं इसलिए पुराने ज़माने में डुग-डुगी बजाई जाती थी,और अब अनाउंसमेंट होते थे। दरअसल सुनने वाला कुछ भी सुनने को तैयार रहता है लेकिन सुनने वाला सिर्फ़ वही सुनने को तैयार नहीं है जो आप सुनाना चाहते हो। ध्यान रहे कान एक खुला ऑबजेक्ट है, आंखें आप बंद कर सकते हो। कानों को बंद करने के लिए अतिरिक्त ऊर्जा यानी उंगलियां डालनी होती है। इस गाने में बच्चा जब टोकता है – आप तो जिंदा है, आगे भी सुनाओ तो ये कहानी – गाना एक माहौल बनाने में और अपनी ही यादों की दुनिया में घूमने में मदद करता है। बच्चे को ‘फिर क्या हुआ’ इसमें दिलचस्पी है।विहंगम पटल पर एक कविता भी इसी उत्सुकता पर है
फिर क्या होगा उसके बाद
फिर क्या होगा उसके बाद,
उत्सुक होकर शिशु ने पुछा
माँ क्या होगा उसके बाद?
यहां श्रोता मंत्रमुग्ध नहीं है। उसका अपना ज़ेहन है और अपना फोकस। यही दिमाग और यही फोकस कहानीनुमा गीत में एक संवाद की गुंजाईश पैदा करती है।