शहर अगर कुछ देर के लिए रुक भी जाये तब भी वह शांत नहीं होता। बीच-बीच में धकेलने की सुई सी उठती और फिर एक चीख के साथ बंद हो जाती। हर आवाज़ एक से बढ़कर एक ड़िमांड करती जितना चिल्ला सकती चिल्लाती, दूर तलक गूँजती और फिर रूक जाती। रास्ता दो नहीं तो चीख पड़ेंगे। सब कुछ उसी में खोकर कहीं रह जाता। इस धमकी को यहाँ मानता कौन है। आवाज़ें यहाँ पर धमकियाँ ही तो देती हैं।
धड़… धड़… धड़… धड़…
टन… टन… टनान…
टन… टन… टन…
सब कुछ अभी कुछ पल के लिए ठहरा-सा है पर यह ठहराव एक लंबी दौड़ से पहले की ख़ामोशी है।
सांय… सांय… सांय…
पीं…पीं…पीं…….
लो दौड़ शुरू हो गई। आँखें मान ही रही हैं कि यहाँ शांति है पर कानों पर आवाज़ों का पहरा ही नहीं है। इक्का-दुक्का अगर कोई आदमी या बंदा दिख भी जाता तो लगता कि मशीनों के अलावा भी यहाँ कोई बसता है। मगर फिर से मशीनों के बीच ही रह जाने का खौफ़ सताने लगता।
शहर ने लोगों को इस रास्ते से चुरा लिया है। जैसे फसल काट डाली गई हो। बस निचला हिस्सा रह गया। रास्ते के पीछे से दौड़ का अहसास निरंतर रहता है। ऐसा मालूम होता की आवाज़ें भी अपना रास्ता खुद से निकाल लेती है। जब भी तेज या धीमी होती तो किसी के गिर जाने की या किसी के डर जाने की चींख सुनाई देती। रेलवे क्रॉसिंग का यह रोड गाड़ियों और आवाज़ों से भले ही लबालब है लेकिन फिर भी एकांत-सा लगता है।
खाना बनने की महक और धुएँ की दुर्गन्ध ने आपस में एक ताना-बाना बना लिया है। यह सड़क किसकी है और अंत तक यहाँ पर कौन रहेगा इसका फैसला तो मशीनों के चीखते शोर ही तय करेंगे।
घट….. घट….. घट…..
पीं…. पीं…. पींईईईई
धड़…. धड़….. धड़….
एक ज़ोर का ब्रेक लगा, एक शोर-सा मच गया।
“धड़ाक” एक पल को मशीनों के भीतर से लोग उतरे। एक दूसरे को देखा, मुस्कुराए और फिर से वापस अपनी मशीनों में बैठ निकल गए। खट….खटक…. से रफा–दफा हो गए।
“पों… पों… पों…” की चीखती जलील कर देने वाली आवाज़ों के आगे आखिर कौन रुकना चाहेगा? बेइज़्ज़त करती ये आवाज़ें किसी को भी सरेआम न तो रुकने देती है और न ही ठहरने। बस, भागना और अपनी आवाज़ की रफ़्तार को बढ़ाना ही यहाँ का दस्तूर है। यहाँ किसी को इस वक़्त में इतना भी जानने-समझने की फुर्सत नहीं है कि उनके साथ क्या हो रहा है या हुआ है- बस, भागते और आगे निकल जाने के अलावा।
आवाज़ें थमने का न तो नाम लेती है और न ही किसी को लेने देती है। कौन किसको रोक रहा है, कौन किस पर खीज रहा है इसका अहसास भी यहाँ किसी को नहीं है।
जैसे ही गाडियाँ थोड़ी कम होती तो रास्ते के दूसरी तरफ़ का नज़ारा दिखना शुरू होता है। गाड़ियों की आवाजाही में आँखें भी रास्ता पार नहीं कर पा रही हैं, लोगों के लिए तो यह नामुमकिन ही है।
सड़क के दूसरी तरफ़ एक सरकारी स्कूल इस बात की गवाही देता है कि कभी यहाँ पर बच्चों की किलकारियाँ और मासूम चीख–पुकारें होती होंगी। मगर आसपास घने जंगल और कुछ सरकारी बैनरों के अलावा अभी कुछ नहीं दिख रहा है। कोई ख़ासी महक नहीं है। बस, सड़क के किनारे एक दो रेहड़ी गरम पराँठे की महक उड़ाती दिख रही है। लोगों की आवाजाही और चीखती गाड़ियों का शोर कुछ पल की भी शांति नहीं देता।
एक बड़ा चौड़ा रोड, मगर लोगों के बिना ही लगता जाम। यहाँ शहर बसता नहीं है बल्कि यहाँ से शहर तेज़ी से निकल जाता है।
बहुत देर के बाद बस स्टैंड पर लोगों का आना उन्हें देख पाना शुरू हुआ है। यहाँ पर कोई रुकने नहीं आया है और ना ही कोई यहाँ का है। बस, गलती से किसी बस से उतरा है। अभी सही गाड़ी आएगी और ये भी चले जायेंगे।
एक वक़्त था जब यहाँ हर बस रुकती थी। लोगों के समान बेचने और काम पर जाने और काम से आने की चहल-कदमी यहाँ इस रोड को जगमगाए रखती थी। मगर आज लगता है कि जैसे किसी को कोई परवाह ही नहीं कि यहाँ पर कौन आया है, कौन आगे जाएगा और कौन किसके इंतज़ार में है। आज यहाँ पर बहुत कम बसें रुकती नज़र आ रही हैं। बेपरवाह और बेइज़्ज़त करता शोर यहाँ पर किसी को कोई मान्यता नहीं देता।
इस रास्ते ने हाथ देकर बस को रोकने वाले छिन लिए हैं।