गर याद रहे

Anand (1971)

इंसान जब मरता है तब तमाम तरह के अनुष्ठान होते है: उन्हें दफ़नाया जाता है, तो कहीं जलाते है । फिर फूल चुनने जाते है और अस्थि को एक लोटे में रख देते है। एक साल बाद उस लोटे को गंगा में बहा देते है। दरअसल ये उस ज़माने के रीतिरिवाज है जब आधुनिक तकनीक नहीं थी। इसलिए लोग अपने अज़ीज़ों की काफ़ी दिनों तक अपने पास एक ऐसी चीज़ रखते थे जो उनकी मौत को झुठला सके। लोग राख रखते थे। राख यानि याद के रुप में एक ठोस चीज़ जिसे आप अपने पास संभाल कर रख सकते हो।तस्वीर पर पड़ी माला उसी अनुष्ठान का दृश्य रूपक है।

शोला था जल बुझा हूँ हवाएं मुझे न दो
मैं कब का जा चुका हूँ सदाएं मुझे न दो।

आज के दौर में यादों को सहेजने की तकनीक में एक बड़ा बदलाव आया है। आपको जिस आवाज़ से लगाव है, उसे सहेजकर जब चाहे सुन सकते हैं। आवाज़ का इंसान से क्या रिश्ता है? इंसान जो कि एक शरीर है और आवाज़ उस शरीर से पैदा होती है: तकनीक उस शरीर के अंगों का ही एक विस्तार है।
आनन्द फ़िल्म का ये दृश्य एक मेलोड्रामेटिक लम्हे का हिस्सा है: क्लायमैक्स दृश्य में टेप का इस्तेमाल रचनात्मक तरीक़े से किया गया है। जैसे ही आनन्द की आवाज़ बंद होती है, अमिताभ बच्चन उसकी ख़ामोशी को झुठलाना चाहता है, उससे अपनी बकबक जारी रखने की गुहार लगाता है, लेकिन मुर्दे कहीं बोलते हैं क्या? तभी टेपरिकार्डर में आनंद की आवाज़ चलने लगती है: बाबू मोशाय…हम सब रंगमंच की कठपुतलियाँ हैं।लगता है आनंद मरा नहीं, क्यूँकि उसकी आवाज़ तो ज़िंदा है। लेकिन टेप बजकर ख़त्म हो जाता है। उसका ख़ाली सिरा बज चुके चक्कर में लिपटकर तब भी चलता जाता है, लेकिन एक पहिया कितनी दूर तक चलेगा? दरअसल टेप के ज़रिए यह भी बताया जा रहा है कि ये आवाज़ हमेशा हमेशा के लिए बंद हो गई है और ये दास्तान ख़त्म हो गयी है। मतलब ये कि जहां से ये मूल आवाज़ निकली थी वो खत्म है पर अब टेप पर चलाकर ही इस आवाज़ को जिलाया और उसके साथ जिया जा सकता है। तकनीक आवाज़ों को अमर करती है। रेडियो जॉकी दिनरात किशोर कुमार के बारे में कहते है कि वे ज़िंन्दा है। अब आनन्द की आवाज़ का एक म्यूजियम वैल्यू हो गया है। इसी के ज़रिए आप उससे जुड़ा महसूस करेंगे। यही आवाज़ आपके पास एक सबूत के रुप में बची रह जायेगी चिपके रहने के लिए एक स्मृतिशेष। तब तक जब तक इस आवाज़ की क़द्र है, जब तक इस आवाज़ को रीप्ले करने की हसरत है, और जब तक टेप सड़-गल नहीं जाए!

नाम गुम जायेगा, चेहरा ये बदल जायेगा,
मेरी आवाज़ ही मेरी पहचान है, गर ये याद रहे…

यानि आधुनिक तकनीक अमरता की गारंटी नहीं बल्कि ज़िंदगी की स्मृति का एक सांकेतिक विस्तार है, जो अनंत भी हो सकता है, गर याद रहे…..मर्त्य मानव के बरक्स उसकी वांछित अमरता के नाटकीय उहापोह की बेहतरीन मिसाल है यह दृश्य।