word of the week: कर्कश आवाज़

कर्कश आवाज़

कर्कश आवाज़ को कान झेलते हैं। कर्कश आवाज़ में क्या कहा जा रहा है, उसे समझने से पहले उसके अंदाज़ और उसका वॉल्यूम से दिमाग अटक जाता है। ये मधुर आवाज़ का विलोम है। ये आवाज़ किसे पसंद है ? शायद उसको भी नहीं जों इसका इस्तेमाल करता है।

यशोदा

translation: a hoarse/grating voice

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गर याद रहे

Anand (1971)

इंसान जब मरता है तब तमाम तरह के अनुष्ठान होते है: उन्हें दफ़नाया जाता है, तो कहीं जलाते है । फिर फूल चुनने जाते है और अस्थि को एक लोटे में रख देते है। एक साल बाद उस लोटे को गंगा में बहा देते है। दरअसल ये उस ज़माने के रीतिरिवाज है जब आधुनिक तकनीक नहीं थी। इसलिए लोग अपने अज़ीज़ों की काफ़ी दिनों तक अपने पास एक ऐसी चीज़ रखते थे जो उनकी मौत को झुठला सके। लोग राख रखते थे। राख यानि याद के रुप में एक ठोस चीज़ जिसे आप अपने पास संभाल कर रख सकते हो।तस्वीर पर पड़ी माला उसी अनुष्ठान का दृश्य रूपक है।

शोला था जल बुझा हूँ हवाएं मुझे न दो
मैं कब का जा चुका हूँ सदाएं मुझे न दो।
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word of the week: सिसकियाँ

सिसकियाँ

बहुत तेज़ रुलाई के फूटने के साथ और आँसूओं के सूख जाने के बाद ये उभरती है। खामोशी और सन्नाटे के बीच ये डूबी-दबी-चिपकी हुई बड़ी रुलाई की छोटी बहन है। ये निज़ी है और दबाव को कम करने के इशारे के साथ होती है। ये नाक के हकलाने से ज़िंदा होती है और सांस के अंदर जाते ही मर जाती है। ये छाती से ऊपर के हिस्से में कंपन को जन्म देती है। ये छोटी उम्र की मेहमान है। अकेलेपन को पूरी तरह से भुनाती है। ये आंतरिक अहसासों के साथ होती है।

translation: soft sobbing – a sound from inside the body as feelings tighten and release the breath

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लाजपत नगर

      lajpat-nagar-market

जगह – लाजपत नगर सेंट्रल मार्किट ( नई दिल्ली )
समय – शाम 4:30 बजे
दिनांक – 30 मार्च 2013

सभी आवाज़ों के साथ एक और आवाज़ यहाँ के माहौल को गुथे जा रही थी। हल्की नीली पोशाक एक हाथ में डंडा और दूसरे हाथ में सीटी लिए वो पूरी जगह में नुकीली पी.. पी…पी. पी… की आवाज़ के साथ घूमे जा रहा था। वो कभी भीड़ को सीटी मार-मार कर खुद के होने को जाहिर करता तो कभी हाथ में रखे डंडे को जमीन पर तीन-चार बार ठक्-ठक्-ठक्-ठक् की आवाज़ के साथ खुद के लिये जगह बनाता हुआ आगे निकल जाता।

इस जगह में उसकी पी-पी… की ये आवाज़ सभी को चौकन्ना रखती और चेतावनी का अहसास माहौल डाल रही थी। जैसे ही वो गार्ड  पीपी… पी. करता हुआ लाजपत नगर सेंट्रल मार्किट में दाख़िल होता तो उस जगह के कई दृश्य टूटते और बदलते हुए नजर आते।

बाज़ार में किसी जगह पर लगी भीड़ टुकड़ों में बिखर जाती, रास्ते पर खड़े लोग किनारे हो लेते, ख़ानाबदोश ठिये फिर कंधो पर चढ़ जाते। लोगों को सचेत करती उसकी सीटी और डंडे की ज़ुबान जैसे ही आगे निकल जाती माहौल पहले की तरह सामान्य हो जाता।

विक्की

word of the week: कराहना

कराहना

यह शरीर के असहय दर्द के संकेत की अस्पष्ट आवाज़ है जिससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि कराहने वाला शारीरिक पीड़ा और तड़प में है। कराहना बिना शब्दों के शरीर की आवाज़ है। कराहने में बड़बड़ाने की भी परछाई आवाज़ छुपी है।

translation: groan – the inarticulate rattle of the body voicing pain

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word of the week: हुल्लड़

हुल्लड़

यानि जब युवा समुह अपने पूरे जोश और मज़े को आवाज़ों की तेजी से व्यक़्त करता है। इसमें आवाज़ें और शरीर दोनों ही एक साथ काम करते हैं। हुल्लड़ ‘हल्ला’ को शारीरिक भाषा में ले आने का भी शब्द हैं। जैसे – हल्ला मचाना और हुल्लड़ करना कथनी से करनी की ओर ले जाता है जिसमें आवाज़ पूरे शरीर की मस्ती को व्यक़्त करती है। शायरों नें इसे जवानी की आवाज़ भी कहा है।

Hard to translate: ‘Hullad’ is the collective noise of a group of 5-6 rowdy young men celebrating.

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word of the week: कानाफूसी

कानाफूसी

कानाफूसी यानि कानों में फुस -फुसा-हट। ये मुँह से और मुँह के नजदीक कानों को जोड़ने वाली आवाज़ है। कई बार ये एक ही शख़्स तक सीमित नहीं रहता पर स्वर की मात्रा/आवाज़ों की ऊँचाई-निचाई/उतार-चढ़ाव उतनी ही रहती है जितना दो के लिए चाहिए। यहां कान महत्वपूर्ण है यानि पूरी कोशिश इसमें रहती है कि आवाज़ कान के बाहर न जाए। कानाफूसी अफवाह, साजिश, गॉसिप और चुगली के संदर्भ में ज़्यादा इस्तेमाल होता है। इसमें आवाज़ों की अस्पष्टता और हड़बड़ाहट की वजह से नये अर्थ गढ़ने की संभावनाएं ज़्यादा रहती है।

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फणीश्वरनाथ रेणु का साहित्यः आवाज़ों से / की भरी- पूरी दुनिया

फणीश्वरनाथ रेणु का साहित्यः आवाज़ों से / की भरी -पूरी दुनिया

हिन्दी में फणीश्वरनाथ रेणु के संबंध में लिखी कही जाने वाली बातें प्रायः आंचलिकता की बहस के इर्दगिर्द होती हैं। यह बहस अगर बेमानी नहीं तो भी रेणु को समझने के लिए कम से कम नाकाफ़ी तो है ही। सकारात्मक या नकारात्मक अर्थों में आंचलिकता से परे भी उनके यहां बहुत कुछ है जिसका अभी पूरी तरह नोटिस नहीं लिया गया है। आवाज़ों की अपनी विचित्रताओं या अद्वतीयाताओं को पकड़ने की जो हिकमत उनके साहित्य में मिलती है उसकी पर्याप्त सराहना अभी तक इन पंक्तियों के लेखक की निगाह से नहीं गुजरी है। अफसोस कि कुछ लोगों, मसलन रामविलास शर्मा ने उनकी ऐसी हिकमत पर ग़ौर फरमाते हुए उसे ऊबाऊ और व्यर्थ ही पाया है। यह दुःखद और आश्चर्यजनक इसलिए है कि अपने आसपास की दुनिया को बारीकी से जानने पर प्रगतिशील आलोचना का विशेष बल रहा है और अपने बैठकखाने में चाय के प्याले में क्रांति करने की उन लोगों ने हमेशा आलोचना की है। इसके बावजूद आचंलिक स्पंदन और एकदम खांटी, असली अनुभूतियों और आवाजों के आर्काइवर रेणु उनको क्यों नहीं भाते।

आखिरकार, प्रगतिशील आलोचना से कहां चूक हुई है कि अपने आसपास की तमाम ध्वनियों को बहुत ग़ौर से सुनने और दर्ज़ करने वाला लेखक दरअसल ड्राइंगरूमी लेखन से अपने बाहर होने का एक सबूत देता रहा। तमाम तरह की आवाज़ों की अद्वितीयता को रेखांकित करता हुआ वह ज़िंदगी के साथ अपने जिस जुड़ाव का परिचय देता है वह तरक्कीपसंद मिज़ाज को भला नागवार कैसे गुजर सकती है?

रेणु का साहित्य ऐसी आवाज़ों का एक भरापूरा खज़ाना है। यह हिन्दी का ऐसा सबसे समृद्ध उदाहरण है जो आवाज़ों की दुनिया को पकड़ने के मामले में दुनिया भर की कद्दावर भाषाओं के साहित्य से कहीं भी कमतर नहीं ठहरता। इस मामले में रेणु का साहित्य हिन्दी वालों के लिए प्रदशर्नीय नमूना है। Continue reading “फणीश्वरनाथ रेणु का साहित्यः आवाज़ों से / की भरी- पूरी दुनिया”

word of the week: चिल्ल पों

चिल्ल पों

चीख़-पुकार के नजदीक का शब्द है, पर ये मारपीट या करुणा वाले संदर्भ से अलग है।
चिल्ल पों – यानि आवाज़ों की आपाधापी जिसके ऊपर जाकर आपको अपनी आवाज़ दर्ज करनी है।
चिल्ल पों वाली आवाज़ सत्ता या किसी भी एक शख़्स की तरफ़ केंद्रित या सम्बोधित नहीं होती बल्कि ये आपस में ही उलझी हुई आवाज़ें हैं और इन सारी आवाज़ों की दिशा बेतरतीब होती है। बचपन के संदर्भ में इस शब्द का ज़्यादा इस्तेमाल होता है। ये एक दूसरे पर चढ़ी हुई आवाज़ों का ढेर है।

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