00.3 पिंजरे पर लकड़ी मारने की आवाज़- झिन झिन झिन नननन…
00.7 टीवी का गाना गुनगुनाना… बूउम… बूउम बूउउउम
00.07 से 00.18 – चिड़ियों का बोलना जो कि मिक्स होकर चहचहाने जैसा ही सुनाई दे रहा है… चीं-चीं-चीं-चिरररर-चिरररर-टी
हम अपने कान खुले रखते हैं।
00.3 पिंजरे पर लकड़ी मारने की आवाज़- झिन झिन झिन नननन…
00.7 टीवी का गाना गुनगुनाना… बूउम… बूउम बूउउउम
00.07 से 00.18 – चिड़ियों का बोलना जो कि मिक्स होकर चहचहाने जैसा ही सुनाई दे रहा है… चीं-चीं-चीं-चिरररर-चिरररर-टी
वहां दाखिल होते ही मन को झनझना देनी वाली आवाज़ों का एक जमघट सा लग गया। दूर से आती हुई ट्रैफिक की गड़गड़ाहट सायं-सायं करती हुई कानों में जैसे घुसने लगी। आज न ही कोई त्यौहार था और न ही कोई खास दिन। फिर भी यहां आते ही लगा जैसे मैं किसी मेले में हूं जहां कई आवाज़ें एक-दूसरे को जी-जान से दबाने की कोशिश में लगी दिर्खाइ देती हैं। जैसे हर
बड़ा जनरेटर अपनी भयंकर भट-भट से छोटे जनरेटर की ठक-ठक, ठक-ठक को आसपास ही रहने की बन्दिशों में बांध देता है और दूर-दराज से आती दस रुपये में तिलिस्मी जादू दिखाने की ललकार सब पर भारी सी पड़ती है। वैसे ही यहां भट-भट, भटटटटटटटटट।।। करता सायलेंसर, टक-ठक टुक पीइं घड-घड,,,चर-चुर्र-चीईई… पर भारी सा लग रहा था।
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ये शोर के कड़क रूप के विपरीत एक कोमल शब्द है। ये शब्द कवियों के काफ़ी नज़दीक है। कोलाहल में ढेर सारी आवाज़ों की लयबद्धता होती है और ये कानों को चुभता नहीं है। लेकिन इसमें भी ढेर-सारी आवाज़ों का अस्पष्ट समुच्चय होता है।
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