word of the week : सन्नाटा

सन्नाटा

सन-सन की आवाज़ से पैदा हुआ ख़ामोशी का यह पर्याय कितना दिलचस्प है! ‘मुर्दा शांति’ या ‘पिन ड्रॉप सायलेन्स’ को भी अभिव्यक्ति के लिए आवाज़ की ज़रूरत होती है। सन्नाटा यानि जब आवाज़ों का अभाव इतना तीखा हो कि उसका अहसास आप पर भारी पड़ जाए। ऐसी ख़ामोशी जहाँ आप अपनी हरकत को ही सुनने लगें। इतनी अविश्वसनीय कि कोई भुतहा मौजूदगी प्रतीत होने लगे। शहरों में ऐसे मौक़े कभी आते हैं क्या?

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word of the week: आहट / aahat

आहट / aahat

ये आवाज़ का एक अहसास है। किसी छोटी- सी हरकत या गति से पैदा होती है। अपने हल्केपन के कारण साफ़ सुनने के रेंज से नीचे ही रहती है। आहट सुनने के लिए चौकन्ना होना पड़ता है। इसमें यथास्थिति के टूटने का भाव है। सुनने वाले के लिये आहट चौंकाती है या राहत देती है। कुछ आहटें जानी-पहचानी होती हैं, कुछ बिल्कुल नई। ऐसी स्थिति में आहट क़यास या अनुमान का कारण बनती है – क्योंकि आहट में दृश्य तत्व नहीं होता।

Translation: Sound almost below threshold of hearing, so soft it is sensed more than heard.

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गर याद रहे

Anand (1971)

इंसान जब मरता है तब तमाम तरह के अनुष्ठान होते है: उन्हें दफ़नाया जाता है, तो कहीं जलाते है । फिर फूल चुनने जाते है और अस्थि को एक लोटे में रख देते है। एक साल बाद उस लोटे को गंगा में बहा देते है। दरअसल ये उस ज़माने के रीतिरिवाज है जब आधुनिक तकनीक नहीं थी। इसलिए लोग अपने अज़ीज़ों की काफ़ी दिनों तक अपने पास एक ऐसी चीज़ रखते थे जो उनकी मौत को झुठला सके। लोग राख रखते थे। राख यानि याद के रुप में एक ठोस चीज़ जिसे आप अपने पास संभाल कर रख सकते हो।तस्वीर पर पड़ी माला उसी अनुष्ठान का दृश्य रूपक है।

शोला था जल बुझा हूँ हवाएं मुझे न दो
मैं कब का जा चुका हूँ सदाएं मुझे न दो।
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word of the week: हुल्लड़

हुल्लड़

यानि जब युवा समुह अपने पूरे जोश और मज़े को आवाज़ों की तेजी से व्यक़्त करता है। इसमें आवाज़ें और शरीर दोनों ही एक साथ काम करते हैं। हुल्लड़ ‘हल्ला’ को शारीरिक भाषा में ले आने का भी शब्द हैं। जैसे – हल्ला मचाना और हुल्लड़ करना कथनी से करनी की ओर ले जाता है जिसमें आवाज़ पूरे शरीर की मस्ती को व्यक़्त करती है। शायरों नें इसे जवानी की आवाज़ भी कहा है।

Hard to translate: ‘Hullad’ is the collective noise of a group of 5-6 rowdy young men celebrating.

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word of the week: कानाफूसी

कानाफूसी

कानाफूसी यानि कानों में फुस -फुसा-हट। ये मुँह से और मुँह के नजदीक कानों को जोड़ने वाली आवाज़ है। कई बार ये एक ही शख़्स तक सीमित नहीं रहता पर स्वर की मात्रा/आवाज़ों की ऊँचाई-निचाई/उतार-चढ़ाव उतनी ही रहती है जितना दो के लिए चाहिए। यहां कान महत्वपूर्ण है यानि पूरी कोशिश इसमें रहती है कि आवाज़ कान के बाहर न जाए। कानाफूसी अफवाह, साजिश, गॉसिप और चुगली के संदर्भ में ज़्यादा इस्तेमाल होता है। इसमें आवाज़ों की अस्पष्टता और हड़बड़ाहट की वजह से नये अर्थ गढ़ने की संभावनाएं ज़्यादा रहती है।

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फणीश्वरनाथ रेणु का साहित्यः आवाज़ों से / की भरी- पूरी दुनिया

फणीश्वरनाथ रेणु का साहित्यः आवाज़ों से / की भरी -पूरी दुनिया

हिन्दी में फणीश्वरनाथ रेणु के संबंध में लिखी कही जाने वाली बातें प्रायः आंचलिकता की बहस के इर्दगिर्द होती हैं। यह बहस अगर बेमानी नहीं तो भी रेणु को समझने के लिए कम से कम नाकाफ़ी तो है ही। सकारात्मक या नकारात्मक अर्थों में आंचलिकता से परे भी उनके यहां बहुत कुछ है जिसका अभी पूरी तरह नोटिस नहीं लिया गया है। आवाज़ों की अपनी विचित्रताओं या अद्वतीयाताओं को पकड़ने की जो हिकमत उनके साहित्य में मिलती है उसकी पर्याप्त सराहना अभी तक इन पंक्तियों के लेखक की निगाह से नहीं गुजरी है। अफसोस कि कुछ लोगों, मसलन रामविलास शर्मा ने उनकी ऐसी हिकमत पर ग़ौर फरमाते हुए उसे ऊबाऊ और व्यर्थ ही पाया है। यह दुःखद और आश्चर्यजनक इसलिए है कि अपने आसपास की दुनिया को बारीकी से जानने पर प्रगतिशील आलोचना का विशेष बल रहा है और अपने बैठकखाने में चाय के प्याले में क्रांति करने की उन लोगों ने हमेशा आलोचना की है। इसके बावजूद आचंलिक स्पंदन और एकदम खांटी, असली अनुभूतियों और आवाजों के आर्काइवर रेणु उनको क्यों नहीं भाते।

आखिरकार, प्रगतिशील आलोचना से कहां चूक हुई है कि अपने आसपास की तमाम ध्वनियों को बहुत ग़ौर से सुनने और दर्ज़ करने वाला लेखक दरअसल ड्राइंगरूमी लेखन से अपने बाहर होने का एक सबूत देता रहा। तमाम तरह की आवाज़ों की अद्वितीयता को रेखांकित करता हुआ वह ज़िंदगी के साथ अपने जिस जुड़ाव का परिचय देता है वह तरक्कीपसंद मिज़ाज को भला नागवार कैसे गुजर सकती है?

रेणु का साहित्य ऐसी आवाज़ों का एक भरापूरा खज़ाना है। यह हिन्दी का ऐसा सबसे समृद्ध उदाहरण है जो आवाज़ों की दुनिया को पकड़ने के मामले में दुनिया भर की कद्दावर भाषाओं के साहित्य से कहीं भी कमतर नहीं ठहरता। इस मामले में रेणु का साहित्य हिन्दी वालों के लिए प्रदशर्नीय नमूना है। Continue reading “फणीश्वरनाथ रेणु का साहित्यः आवाज़ों से / की भरी- पूरी दुनिया”

word of the week: चिल्ल पों

चिल्ल पों

चीख़-पुकार के नजदीक का शब्द है, पर ये मारपीट या करुणा वाले संदर्भ से अलग है।
चिल्ल पों – यानि आवाज़ों की आपाधापी जिसके ऊपर जाकर आपको अपनी आवाज़ दर्ज करनी है।
चिल्ल पों वाली आवाज़ सत्ता या किसी भी एक शख़्स की तरफ़ केंद्रित या सम्बोधित नहीं होती बल्कि ये आपस में ही उलझी हुई आवाज़ें हैं और इन सारी आवाज़ों की दिशा बेतरतीब होती है। बचपन के संदर्भ में इस शब्द का ज़्यादा इस्तेमाल होता है। ये एक दूसरे पर चढ़ी हुई आवाज़ों का ढेर है।

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word of the week: कोलाहल

कोलाहल

ये शोर के कड़क रूप के विपरीत एक कोमल शब्द है। ये शब्द कवियों के काफ़ी नज़दीक है। कोलाहल में ढेर सारी आवाज़ों की लयबद्धता होती है और ये कानों को चुभता नहीं है। लेकिन इसमें भी ढेर-सारी आवाज़ों का अस्पष्ट समुच्चय होता है।

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सुनने की शर्त

दीवार 1975

इस सीन में बडे भाई ने छोटे भाई को सुनने के लिए बुलाया है .वो बस सुनने आया है . ऐसा लगता है अपनी तरफ से उसे कुछ नहीं कहना है . उसके शरीर मे इंतज़ार का एक भाव है .लेकिन उसके इंतज़ार में एक बेचैनी है . बेचैनी इसलिए की वो जनता है कि वो क्या सुनने आया है ?बेचैनी इसलिए नहीं की उसे कोई हैरत होने वाली है .गौर करने वाली बात ये है कि वो तब तक नहीं बोलता है जब तक सवाल नहीं पुछा जाता .वैसे भी रिश्तों के सारे पुल टूट चुके हैं .इसी पुल के बहाने सुनने की जगह की तरफ भी अपने भाई को इशारा करता है। अमिताभ कहता है कि ”हम कहीं और नहीं इसी पुल के नीचे ही मिल सकते थे ”.
सुनने की एक जगह भी होती है.जो बात इस बार भाई कहना चाहता है वो यहीं कही जा सकती हैं — और यहीं सुनी भी जा सकती है. एक भरपूर भावुक सेटअप तैयार किया गया है .

पर सुनने का प्रमाण देने के लिए बोलना ज़रूरी होता है. अगर प्रतिक्रिया नही देंगे तो कैसे पता चलेगा की आप सुन रहे हो?
शशी कपूर आपने बॉडी –हाथों से, चाल से ,और नज़र न मिला के वो अपनेको disinterested listener बतला रहा है.

अमिताभ पूछता है/प्रतिक्रिया चाहता है कि सुनने मे भाई को दिलचस्पी है भी की नहीं .वो कहता है कि ”मैं किससे बात कर रहा हूँ .
लेकिन आज ‘दोनों कहना चाहते थे’
‘दोनों सुनाना चाहते थे’ . सुनने के लिए आज कोई नहीं आया।

कौन कहेगा, कौन सुनेगा में एक पारंपरिक हायरार्की तो है ही जो बड़े भाई और छोटे भाई में होती है, शशि कपूर की तलहथियोँ की कसमसाहट उस असंतोष से भी निकलती है। हाथ पीठ पर बँधे हैं, लेकिन सम्मान में नहीं।